याद है,
तुम और मैं
पहाड़ी वाले शहर की
लम्बी, घुमावदार,सड़क पर
बिना कुछ बोले
हाथ में हाथ डाले
बेमतलब, बेपरवाह
मीलों चला करते थे,
खम्भों को गिना करते थे,
और मैं जब चलते चलते
थक जाता था,
तुम आंखें बन्द कर के,
कोट की जेब से
हाथ निकाले बग़ैर ,
उँगलियों पर
कुछ गिननें का बहाना कर के
कहती थीं ,
बस उस अगले खम्भे तक और ।
आज बरसों के बाद
मैं अकेला ही
उस सड़क पर निकल आया हूँ ,
खम्भे मुझे अजीब निगाह से देख रहे हैं
मुझ से तुम्हारा पता पूछ रहे हैं ,
मैं थक के चूर चूर हो गया हूँ
लेकिन वापस नहीं लौटना है
हिम्मत कर के ,
अगले खम्भे तक पहुँचना है
सोचता हूँ
तुम्हें तेज चलने की आदत थी,
शायद अगले खम्भे तक पुहुँच कर
तुम मेरा इन्तजार कर रही होगी !
तुम और मैं
पहाड़ी वाले शहर की
लम्बी, घुमावदार,सड़क पर
बिना कुछ बोले
हाथ में हाथ डाले
बेमतलब, बेपरवाह
मीलों चला करते थे,
खम्भों को गिना करते थे,
और मैं जब चलते चलते
थक जाता था,
तुम आंखें बन्द कर के,
कोट की जेब से
हाथ निकाले बग़ैर ,
उँगलियों पर
कुछ गिननें का बहाना कर के
कहती थीं ,
बस उस अगले खम्भे तक और ।
आज बरसों के बाद
मैं अकेला ही
उस सड़क पर निकल आया हूँ ,
खम्भे मुझे अजीब निगाह से देख रहे हैं
मुझ से तुम्हारा पता पूछ रहे हैं ,
मैं थक के चूर चूर हो गया हूँ
लेकिन वापस नहीं लौटना है
हिम्मत कर के ,
अगले खम्भे तक पहुँचना है
सोचता हूँ
तुम्हें तेज चलने की आदत थी,
शायद अगले खम्भे तक पुहुँच कर
तुम मेरा इन्तजार कर रही होगी !
8 comments:
बहुत खूब!!!
बढ़िया!खम्भे भी पारिवारिक दोस्तों की तरह हो गये जो अकेले जाने पर पूछते हैं अकेले क्यों आये?
पुरानी यादों मे इतना भी क्यों खोना|
जो कल था वह बीत गया जो आज है वही सच है|
हम आपके इस अगले खम्भे तक के सफर के लिए मंगल कामना करते है एंव आशा करते है कि आपका सफर और उनका इन्तजार, एक-दुसरे के दिदार पर खत्म हो।
प्रवीण परिहार
Anoopji,
'Gulzarfans' ke mails parte parte aap ke Blog tak pahunch gaya. 'Blogger' ko dhanyavad diya. Saral expressions ka umda presentation hai. Jaari rakhein.
SaVe
aapki yeh kavita mujhe bahut pasand hai. kai baar padhi hai, par fir bhi har baar padhne par achhi lagti hai.
अनूप जी… यूँ ही वाया अभिषेक ओझा यहां तक आ गया और न जाने क्यूं पलकों कि कोरें भीग गयीं… आभार प्रकट करता हूं…
मर्म स्पर्शी कविता अनिल जी।
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