१.
जज़्बातों की उठती आँधी
हम किसको दोषी ठहराते
लम्हे भर का कर्ज़ लिया था
सदियां बीत गई लौटाते ।
२.
वो लड़ना झगड़ना रूठना और मनाना
किस्से सभी ये पुराने हुए हैं
वो कतरा के छुपने लगे हैं हमीं से
महबूब मेरे सयाने हुए हैं ।
3/21/2008
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15 comments:
ईद के चांद होली में दिखे। सही है दिखे तो सही।
waah
बहुत ही बढिया बहुत खूब - धन्यवाद अनूप जी - साभार - मनीष [ इसको नोट कर के रख लिया है ]
कल बधाई दे नही पाई सभी लोगो को घर मेहमानो से भर गया था...:)
अनूप भाई आपको व सारे परिवार को होली की शुभकामनायें...
alसुन्दर अभिव्यक्ति। बधाई
अनूप भाई,
कोशिश करूँगा कि भविष्य में ये चाँद कुछ ज्यादा दिखाई दे (अपने ’सर’ की बात नहीं कर रहा हूँ :-))
कंचन, मनीष, सुनीता, शोभा जी:
आप को पंक्तियां पसन्द आई और आप ने लिखा , इस के लिये धन्यवाद ।
स्नेह बनाये रखिये
आपकी इस कविता से घनानन्द का एक छन्द याद आया
अति सीधो सनेह को मारग है ,
यहाँ नेकु सयानप बांक नही ....
स्नेह का मार्ग सीधा होता है , यहाँ सयानापन दिखाने वाले नही चल सकते ।
" वो कतरा के छुपने लगे हैं हमीं से
महबूब मेरे सयाने हुए हैं ।"
बहुत खूब अनुप भाई
स - स्नेह,
-लावण्या
सुजाता ! तुम्हारी इस ’सयानी’ बात के लिये धन्यवाद । :-)
लावण्या जी ! आप को पँक्तियां अच्छी लगी , धन्यवाद ।
अनूप जी ...यह कविता तो उसी दिन रूह मैं उतर गयी थी जब u ट्यूब लिंक पर आपको सुना था .....
lijye dhoondh li, kamaal chupaaye nahi chupta.
पहला वाला बहुत ही अच्छा लगा..
वैसे मैं बिट्स पिलानी से हूँ...तृतीय वर्ष..
कभी मेरे ब्लॉग पर पधारकर अनुग्रहित करें |
वाणी-०९ का प्रकाशन अतिशीग्रह होने वाला है..
ज्यादा जानकारी के लिए हिंदी प्रेस क्लब पर जा सकते हैं |
bahut sundar shayri he
apki blog ki sabhi kavitaye achhi lagi
http://shayaridays.blogspot.com
lajwaab
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