कविता बनी
टूटते मूल्यों
और विश्वासों की
शृंखला में जब
खुद की खुद से न बनी
कविता बनी
कल्पना की उड़ान में
सपनो के जहान में
मिट्टी के घरोंदे बनाते
जब उँगलियाँ सनी
कविता बनी
फूलों से गंध चुरा
तितली से रंग
अहसास के समंदर में
सीपियाँ चुनी
कविता बनी
बात मीठी कही
बात मन से कही
ढली शब्दों में
जब चाशनी
कविता बनी
कुछ कहा न सुना
सिर्फ़ देखा किए
मूक थे होंठ
फिर भी सुनी
कविता बनी
सिर्फ़ अपनी नही
पीर जग की सही
पूरे युग की व्यथा
शब्दों में जनी
कविता बनी
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