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2/22/2009

एक ख़याल


जब शब्द
अधिक महत्वपूर्ण होने लगें
और भावनाएं गौण
तो कोलाहल में भी
गूंजने लगता है मौन

ऐसे में
शब्दों के अर्थ बदल लेना ही उचित है ।
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2/05/2009

तुम्हारे शब्द मुझ तक पहुँच ही कहां पाते हैं

तुम्हारे शब्द मुझ तक पहुँच ही कहां पाते हैं ?

अक्सर जमाने की
ज़बरदस्ती ओढाई गई
तहज़ीब की चाशनी में
फ़िसल के लौट जाते हैं ,

तुम्हारे शब्द मुझ तक पहुँच ही कहां पाते हैं ?

तुम्हारे होठों के गोल होने से शुरु हो कर
शब्दों के मेरे कान तक पहुँचने का समय
एक युग के समान लगता है ,
किताबों में पढा था ,
प्रकाश की गति ध्वनि से तेज हुआ करती है ,
शायद इसीलिये

तुम्हारे आंखो से कहे बोल
तुम्हारी आवाज़ से पहले ही
मेरी आंख की कोर तक पहुँच कर ठहर जाते है ।

तुम्हारे शब्द मुझ तक पहुँच ही कहां पाते हैं ?