6/21/2005

अस्तित्व


मैनें कई बार
कोशिश की है
तुम से दूर जानें की,
लेकिन मीलों चलनें के बाद
जब मुड़ कर देखता हूँ
तो तुम्हें
उतना ही
करीब पाता हूँ

तुम्हारे इर्द गिर्द
व्रत्त की परिधि
बन कर
रह गया हूँ मैं ।

2 comments:

Ashish Shrivastava said...

अनुप भाई, कक्षा १ से लेकर अभियांत्रिकी तक मै ज्यामीती समझ नही पाया. आपने हमारी आंखे खोल दी. आपने हमे इस क्लिष्ट विषय के लिए एक नया दृष्टिकोण दिया है. गुरूदेव अब तक आप कहाँ थे ?
आशीष कुमार

Anonymous said...

Anoop ji,

aaj office mein kisi ney aap ki ye kavitaa sunaayi aur kaha writer kaa naam pataa nahin hai...
hamein bahut khushi hui, hamney kahaa ye kavi to hamarey mitrr hai :) uss ko is kavitaa ki prati bhi bhej di ..