कब तक लिये
बैठी रहोगी
मुठ्ठी में धूप को,
ज़रा हथेली
को खोलो
तो सबेरा हो ...
6/29/2006
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न तो साहित्य का बड़ा ज्ञाता हूँ,
न ही कविता की
भाषा को जानता हूँ,
लेकिन फ़िर भी मैं कवि हूँ,
क्यों कि ज़िन्दगी के चन्द
भोगे हुए तथ्यों
और सुखद अनुभूतियों को,
बिना तोड़े मरोड़े,
ज्यों कि त्यों
कह देना भर जानता हूं ।
4 comments:
कौन चाहता है कि सुबह हो,
रात के जीवन मे जो मजा,
वह दिन मे कहां|
गुज़रे चन्द रोशन पलों से
मिलाती है यह धूप
ज़माने की सर्द हवायों से
बचाती है यह धूप
कैसे जाने दूँ इसको
मुठ्ठीी से फिसल
मेरी आत्मा न जाएगी
देह से निकल ?
इसी से हुया
जीवन में सवेरा
इसी से छंटा
गहन काला अंधेऱा
न माँगो मुझसे
मेरी इकलौती भोर
मेरी मुठ्ठी में
इसके सिवाय कुछ न और ।।
याद रखना
फिर मुझे
दोष न देना
अगर सवेरा हो जाये
धूप मुट्ठी से निकलकर
बहक जाये …
Lovely lines, Anoop. Well written.
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