11/19/2006

तुम जब से रूठी हो

तुम जब से रूठी हो
मेरे गीत अपना अर्थ खो बैठे हैं
मेरे ही गीत मुझ से ही खफ़ा हो
मुझ से दूर जा बैठे हैं

माना कि तुम मुझ से नाराज़ हो
लेकिन मेरे गीतों से तो नहीं
क्या तुम उनको भी मनानें नही आओगी ?

मेरे गीत फ़िर से नया अर्थ पानें को बेताब हो रहे हैं ।

6 comments:

Anonymous said...

पहली बात की कविता सुन्दर है, शब्द संयोजन अच्छा है, भावो कि अभिव्यक्ति कमाल की है.
दुसरे यह की यह सब रूटिन टिप्पणी लग रही हो तो बता दो यह 'गीत' क्या आपका लाड़ला है जिसकी दुहाई दे कर 'उन्हे' बुला रहे है, कि मेरा न सही अपने बच्चे का तो ख्याल करो. लौट आओ.
(भैये मौज ले रहा हूँ, बुरा न मानना. रूटिन टिप्पणीयाँ कर कर बोर हो गया हूँ. चाहो तो इसे हटा देना)

Pratik Pandey said...

वाह... गीत के माध्यम से ही गीत को बचाने की गुहार। सुन्दर भावाभिव्यक्ति है।

अनूप भार्गव said...

संजय भाई:
इस में बुरा माननें की बात ही नहीं है । हाँ गीत लाड़ले तो हैं ही , मेरे भी और ...।
लेकिन यहाँ बात सीधे कहनें के बजाय गीतों के माध्यम से कहने की कोशिश की है , शायद ऐसे समझ लीजिये जैसे गोपियां कान्हा से अपनी बात सीधे कहनें के बजाय गायों के माध्यम से कहती हैं (गायें तुम्हारे बिना कुछ खाती नहीं हैं , दुबली हो गई हैं ......)
इसी दौर में एक और कविता लिखी थी जिस की पहली दो पंक्तियां हैं :

मैं नहीं मेरी डायरी के पन्नें तुम्हें याद किया करते हैं
अक्सर तुम्हारे सन्दर्भों की मांग किया करते है ।


अनूप

bhuvnesh sharma said...

बहुत ही खूबसूरत मनुहार है गीत के माध्यम से.
शुक्रिया

Udan Tashtari said...

सुन्दर भाव हैं, अनूप जी. अच्छा लगा पढ़कर.

Sanjeet Tripathi said...

चुराने का मन हो उठा इस कविता को, शायद इस से ज्यादा तारीफ़ संभव नही!!