काफ़ी दिन से कुछ नया लिखना नहीं हो पाया ।
कल बेजी की कविता पढी तो कुछ लिखने का मन हुआ ।
बेजी की अनुमति से प्रस्तुत है पहले उस की कविता इस रंग में और फ़िर मेरी कुछ पँक्तियां इस रंग में :
दूरी
किसी वृत्त में
दो बिंदु की तरह मिले....
पास पास
मैं आगे थी...
वो पीछे...
अजीब जिद थी
कि बीच का फासला
मैं तय करूँ......
और बस यूँ ही
फासले बढ़ गये
चलो यूँ कर लें....
अगर तुम्हारी ज़िद है
कि फ़ासला मै ही तय करूँ ,
तो वायदा करो
तुम मेरा इन्तज़ार करोगे ,
मैं ही कुछ तेज चल लेती हूँ
वृत्त में दूरियां
पहले तो बढेंगी
फ़िर धीरे धीरे
मैं तुम में विलीन हो जाऊँगी ।
परिधि की अगली परिक्रमा में
मेरे साथ चलोगे ना ?
3/27/2008
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21 comments:
बहुत सुंदर !!!
क्या खूब प्रतिध्वनि, अनुनाद है।
ज्यामितिक शब्दावली में अंतर्मन की गूढ़ पहेली और सनातन गाँठें खोलने , हल तलाशने की सार्थक कोशिश।
भई, हमें तो अच्छी लगी जुगलबंदी ।
आपकी एक और कविता याद आ गई ..यूँ कह लें के पहले ..उसे भी डाल देते यहाँ फिर सर्कल पूरा हो जाता
वाह - बहुत ही बढ़िया [ जैसे प्रत्यक्षा जी और आपका पुराना संवाद था] - कमाल है
अरे भई आप लोग दोनो ठहरे कविता के कारीगर ,कितनी महीन बातें नक्काशी हैं , हमें तो ज़्यादा पल्ले नही पडता ।
बेजी की कविता सुन्दर है । ज़िद अक्सर दूरियाँ ही बढाती है प्यार नही ।
धन्यवाद अजीत जी । आप ने तो बहुत बड़ी बात कह दी । :-)
प्रत्यक्षा ! शायद तुम इस कविता की बात कह रही हो :
http://anoopbhargava.blogspot.com/2005/06/asking-for-date.html
अब इसे पहले डालें या बाद में , व्रुत्त में तो सब गुड़्मुड़ सा हो जाता है ना ?
मनीष ! तुम्हे कविता पसन्द आई अच्छा लगा । तुम्हारी कविता पर टिप्पणी नहीं करता लेकिन पढता ज़रूर हूँ ।
सुजाता ! धन्यवाद ! ज़िद दूरियां बढाती तो है लेकिन तभी जब दोनों तरफ़ से हो । बेजी की कविता वास्तव में बहुत सुन्दर है , इतने दिनों के बाद कलम उठाने के लिये मज़बूर कर दिया ।
कभी-कभी कुछ कारणवश बहुत दिनों तक लेखनी से नाता टूट सा जाता पर जब लेखनी चल पड़ती तो कुछ ऐसा लिख जाती है जो बहुत ही मूल्यवान होता है अनूप जी बहुत अच्छा लिखा है आप दोनों ने आप दोनों को बहुत-बहुत बधाई....
भावना
बहुत सुन्दर कविता वृत के दो परस्पर बिन्दूओं की दूरी...बहुत गूड़ रहस्य है इसमें...
वृत्त में दूरियां
पहले तो बढेंगी
फ़िर धीरे धीरे
मैं तुम में विलीन हो जाऊँगी ।
दोनो ही कवितायें बहुत सुन्दर है...
dono hi kavitaayen alag alag baatey kehti hain...magar anuuthhi v arthpuurn...
सुन्दर। ये गणित का लफ़ड़ा आप ने ही शुरू किया था। इसके चक्कर में हमने पूरा गणितीय कवि सम्मेलन कर डाला था। सब दुबारा याद आया।
दोनों की कविताये अपना एक आकाश लिए हुए है
Anoopji, bahut achhi lagai do kaviyon ki jugalbandi.. par aapki kavitaaon mein mujhe agle khambe tak ka safar sabse achhi lagti hai
बहुत अच्छी रचना .. अन्य रचनाये भी बहुत सुन्दर है
दोनों रंग बहुत अच्छे लगे :)
बहुत सुंदर, अनूप जी
हम्म अजीब जिद थी की बीच का फासला .....कौन तय करेगा ....
और बस यूँ ही
फासले बढ़ गये
कितना अच्छा हो कि फासलों को बननें से पहले ही मिटा दिया जाए ...
परिधि की अगली परिक्रमा में
मेरे साथ चलोगे ना ?
बहुत सुंदर
chlo aisa kare ki main tez chal leti hoon
prem ki parakastha hai
ek ladki ka samarpan
bahut achha laga padna
SIR
BAHUT DER SE AAPKI KAVITAYE PADH RAHA HOON
BAS KUCH NAHI KLAHUNGA
NAMAN AAPKI LEKHNI KO
VIJAY
श्रद्धा जी:
आप को कविता अच्छी लगी , मुझे अच्छा लगा । आप की गज़लों का मुरीद हूँ मैं ।
विजय भाई:
आप का स्नेह है जो आप इतना कह रहे हैं । आभार ।
sundar bhav sundar peshkash mubarakbaad
बहुत सुंदर
V.K. Bhalla
आदरणीय डा. भल्ला जी (VKB)
आप को कविता पसन्द आई , अच्छा लगा ।
आभार
अनूप
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