7/30/2006

दो मुक्तक

१.

रात इक शबनमी है चले आइये
आँसुओं में नमी है चले आइये
अब उजाला कहीं दीख पड़ता नहीं
चाँदनी की कमी है चले आइये

२.

नज़ारे बेमिसाल देखे हैं
हादसे और कमाल देखे हैं
मैं ढूँढ रहा हूँ हल जिनका
तेरी चुप में सवाल देखे हैं ।


3 comments:

Manish Kumar said...

बहुत खूब लिखा है अनूप भाई !

अनूप शुक्ल said...

हम भी यही कहते हैं कि बहुत खूब लिखा है! लेकिन इतना कम क्यों लिखा ?

अनूप शुक्ल said...

हम भी यही कहते हैं कि बहुत खूब लिखा है! लेकिन इतना कम क्यों लिखा ?