9/25/2006

कोई शब्द नहीं है ...


प्रत्यक्षा नें एक पुरानी कविता की याद दिलाई तो ईकविता के झरोखे से जा कर वह कविता भी निकाली जिस की प्रतिक्रिया के रूप में यह कविता लिखी गई थी ।

प्रत्यक्षा की कविता पहले और फ़िर अपनी दे रहा हूँ :

बात तुम से कहनें के लिये
मैं खोलती हूँ
शब्दों के पिटारे
पर उड़ जाते हैं कभी
तितली बन कर
एक फ़ूल से
फ़ूल दूसरे,
और कभी हाथ आई
मछलियों की तरह
फ़िसल जाते हैं
गिरफ़्त से

तुम्ही कहो
मैं क्या करूँ
तुम तक पहुँचनें को
पास मेरे अब
कोई शब्द नहीं
---
प्रत्यक्षा

अब समझ आया है मुझ को ,
हर फ़ूल में क्यों आ रही थी तेरी खुशबू ,
तितलिओं नें काम ये अच्छा किया है ।

और वो नदी जो
तुम्हारे गाँव से
मेरे घर तक आती है
सुना है
रात उस में खलबली थी
मछलियां आपस में कुछ बतिया रहीं थी
कुछ बात कह कर आप ही शरमा रहीं थी
क्या हुआ गर बात तुम जो कह न पाई
शब्द ही तो प्रेम की भाषा नहीं है ?

--
अनूप

3 comments:

Pratyaksha said...

अब मेरे पास कोई शब्द नहीं ये कहने को कि आपने इतनी पुरानी कविता खोज निकाली :-)
चलिये ,फिर एक और पेश है ..


शब्द जो मेरे
अब तक मौन थे
अब चहकते हैं
नटखट बच्चे की तरह

हँसी की किलकारियाँ
भरते हैं.....

पर मैं नहीं जानती
तुम तक पहुँचते ही
ये शरमीले हो कर
चुप क्यों हो जाते हैं

शायद तुम ही बता पाओ
या फिर
खुद ही समझ जाओ
इस मौन की भाषा को

पारुल "पुखराज" said...

बहुत सुंदर्……आपकी पंक्तियों से किसी और की 4 पंक्तियां याद आ गयीं………
शब्द तो शोर है तमाशा है
भाव के सिन्धु मे बताशा है
मर्म की बात होंठो से ना कहो
मौन ही भावना कि भाषा है ।

अनूप भार्गव said...

पारुल:

ये पंक्तियां ’नीरज’ जी की हैं ।