काफ़ी दिन से कुछ नया लिखना नहीं हो पाया ।
कल बेजी की कविता पढी तो कुछ लिखने का मन हुआ ।
बेजी की अनुमति से प्रस्तुत है पहले उस की कविता इस रंग में और फ़िर मेरी कुछ पँक्तियां इस रंग में :
दूरी
किसी वृत्त में
दो बिंदु की तरह मिले....
पास पास
मैं आगे थी...
वो पीछे...
अजीब जिद थी
कि बीच का फासला
मैं तय करूँ......
और बस यूँ ही
फासले बढ़ गये
चलो यूँ कर लें....
अगर तुम्हारी ज़िद है
कि फ़ासला मै ही तय करूँ ,
तो वायदा करो
तुम मेरा इन्तज़ार करोगे ,
मैं ही कुछ तेज चल लेती हूँ
वृत्त में दूरियां
पहले तो बढेंगी
फ़िर धीरे धीरे
मैं तुम में विलीन हो जाऊँगी ।
परिधि की अगली परिक्रमा में
मेरे साथ चलोगे ना ?
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3/27/2008
9/25/2006
कोई शब्द नहीं है ...
प्रत्यक्षा नें एक पुरानी कविता की याद दिलाई तो ईकविता के झरोखे से जा कर वह कविता भी निकाली जिस की प्रतिक्रिया के रूप में यह कविता लिखी गई थी ।
प्रत्यक्षा की कविता पहले और फ़िर अपनी दे रहा हूँ :
बात तुम से कहनें के लिये
मैं खोलती हूँ
शब्दों के पिटारे
पर उड़ जाते हैं कभी
तितली बन कर
एक फ़ूल से
फ़ूल दूसरे,
और कभी हाथ आई
मछलियों की तरह
फ़िसल जाते हैं
गिरफ़्त से
तुम्ही कहो
मैं क्या करूँ
तुम तक पहुँचनें को
पास मेरे अब
कोई शब्द नहीं
---
प्रत्यक्षा
अब समझ आया है मुझ को ,
हर फ़ूल में क्यों आ रही थी तेरी खुशबू ,
तितलिओं नें काम ये अच्छा किया है ।
और वो नदी जो
तुम्हारे गाँव से
मेरे घर तक आती है
सुना है
रात उस में खलबली थी
मछलियां आपस में कुछ बतिया रहीं थी
कुछ बात कह कर आप ही शरमा रहीं थी
क्या हुआ गर बात तुम जो कह न पाई
शब्द ही तो प्रेम की भाषा नहीं है ?
--
अनूप
6/22/2006
प्रत्यक्षा से संवाद
यह कविता संवाद की तरह है। प्रत्यक्षा नें एक कविता लिखी थी, उस के ज़वाब में एक कविता लिखी गई प्रत्यक्षा नें फ़िर कुछ लिखा , फ़िर मैने । यहाँ पूरी कविता दे रहा हूँ । प्रत्यक्षा के लिखे अंश इस रंग में हैं , मेरे लिखे हुए इस रंग में। बताइयेगा प्रयोग कैसा लगा ?
एक टुकडा छत
वृक्ष की जडों के खोह में
अँधेरा कुलबुलाता था
थोडी सी रौशनी
मुट्ठी भर ज़मीन
और एक टुकडा छत
बस इतना ही काफी है
अँधेरे को अपने
काबू में करने के लिये,
मेरी छत
वहाँ से शुरु होती है
जहाँ से तुम्हारी
ज़मीन
खत्म होती है
रौशनी का
एक गोल टुकडा
बरस जाता है
किरणे बुन लेती हैं
अपनी दीवार
और हमारा घर
धूप ,साये, परिंदो
और बादल से
होड लगाता
झूम जाता है
हमारी आँखों में
एक टुकडा छत
वृक्ष की जडों के खोह में
कभी कभी इच्छा होती है
अपनें पैरों के नीचे की जमीन को
खिसका कर
वहाँ तक पहुँचा दूँ
जहाँ से तुम्हारी छत शुरु
होती है,
वो जमीन
जिस पर मेरे पाँव
अब भी टिके हुए हैं
और जिस पर हम नें
मिल कर ख्वाब देखे थे,
वो हसीन ख्वाब आज भी
अगरबत्ती की तरह सुलग रहे है,
पता नहीं खुशबु
तुम्हारी छत तक पहुँची
या नहीं ?
मेरी छत और तुम्हारी छत
की मुंडेर अब बराबर है
तभी तुम्हारी खुशबू
पहुँच जाती है
मुझ तक
मैं बारबार
नंगे पाँव भागकर,
छत पर क्यों आ
जाती हूँ
ये समझ गये हो न
अब !
मुंडेर चाहे
छत के बीच में हो
या सम्बन्धों में,
अच्छी नही लगती ।
छत की मुंडेर तो
लाँघना आसान है
लेकिन ....
तुम भी अपने
रोशनी के
गोल टुकडे से
पूछ कर देखो ना ?
मैंने
रौशनी के उस
गोल टुकडे को
हल्के से
फूँक दिया है
तुम्हारी तरफ
अब तुम्हारा
चेहरा भी
खिल गया है
मेरी तरह
वो रोशनी का
गोल टुकड़ा
क्षितिज से
उगता हुआ
जब मेरी खिड़की
पर आया
तो उस में
हर रोज़ से
कुछ ज्यादा
चमक थी ।
जानता हूँ
तुम्हारा घर
पूरब की ओर है,
क्या तुम
आज सुबह
जल्दी उठ गई थी ?
मैं रात सोई ही
कब थी
खिडकी से चेहरा टिकाये
अंधेरी रात में
कहीं दूर जो
दिया सा टिमटिमाता था
उसे ही देखती रही
सोचती रही
गुनती रही
शायद
तुम भी
ऐसे ही
अपनी खिडकी से
चेहरा टिकाये
मेरी खिडकी की तरफ
देखते होगे
टिमटिमाते हुए
दिये को
मैं भी
बहुत देर तक
देखता रहा
मन बहुत उदास सा था,
लेकिन फ़िर
तुम्हारी खिड़की की ओर
नज़र पड़ी,
तो बुझते हुए दिये
की लौ
अचानक तेज सी
लगने लगी ...
एक टुकडा छत
वृक्ष की जडों के खोह में
अँधेरा कुलबुलाता था
थोडी सी रौशनी
मुट्ठी भर ज़मीन
और एक टुकडा छत
बस इतना ही काफी है
अँधेरे को अपने
काबू में करने के लिये,
मेरी छत
वहाँ से शुरु होती है
जहाँ से तुम्हारी
ज़मीन
खत्म होती है
रौशनी का
एक गोल टुकडा
बरस जाता है
किरणे बुन लेती हैं
अपनी दीवार
और हमारा घर
धूप ,साये, परिंदो
और बादल से
होड लगाता
झूम जाता है
हमारी आँखों में
एक टुकडा छत
वृक्ष की जडों के खोह में
कभी कभी इच्छा होती है
अपनें पैरों के नीचे की जमीन को
खिसका कर
वहाँ तक पहुँचा दूँ
जहाँ से तुम्हारी छत शुरु
होती है,
वो जमीन
जिस पर मेरे पाँव
अब भी टिके हुए हैं
और जिस पर हम नें
मिल कर ख्वाब देखे थे,
वो हसीन ख्वाब आज भी
अगरबत्ती की तरह सुलग रहे है,
पता नहीं खुशबु
तुम्हारी छत तक पहुँची
या नहीं ?
मेरी छत और तुम्हारी छत
की मुंडेर अब बराबर है
तभी तुम्हारी खुशबू
पहुँच जाती है
मुझ तक
मैं बारबार
नंगे पाँव भागकर,
छत पर क्यों आ
जाती हूँ
ये समझ गये हो न
अब !
मुंडेर चाहे
छत के बीच में हो
या सम्बन्धों में,
अच्छी नही लगती ।
छत की मुंडेर तो
लाँघना आसान है
लेकिन ....
तुम भी अपने
रोशनी के
गोल टुकडे से
पूछ कर देखो ना ?
मैंने
रौशनी के उस
गोल टुकडे को
हल्के से
फूँक दिया है
तुम्हारी तरफ
अब तुम्हारा
चेहरा भी
खिल गया है
मेरी तरह
वो रोशनी का
गोल टुकड़ा
क्षितिज से
उगता हुआ
जब मेरी खिड़की
पर आया
तो उस में
हर रोज़ से
कुछ ज्यादा
चमक थी ।
जानता हूँ
तुम्हारा घर
पूरब की ओर है,
क्या तुम
आज सुबह
जल्दी उठ गई थी ?
मैं रात सोई ही
कब थी
खिडकी से चेहरा टिकाये
अंधेरी रात में
कहीं दूर जो
दिया सा टिमटिमाता था
उसे ही देखती रही
सोचती रही
गुनती रही
शायद
तुम भी
ऐसे ही
अपनी खिडकी से
चेहरा टिकाये
मेरी खिडकी की तरफ
देखते होगे
टिमटिमाते हुए
दिये को
मैं भी
बहुत देर तक
देखता रहा
मन बहुत उदास सा था,
लेकिन फ़िर
तुम्हारी खिड़की की ओर
नज़र पड़ी,
तो बुझते हुए दिये
की लौ
अचानक तेज सी
लगने लगी ...
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