11/30/2005

दो मुक्तक

साकी तेरी महफ़िल में एक मेहमान अभी बाकी है
तेरी मय का, तेरे रूप का कदरदान अभी बाकी है
इस तरह कैसे उठ जाऊँ कहानी अधूरी छोड़ कर ऐसे
तूनें रुख से नकाब उठाया है मेरा इम्तहान अभी बाकी है ।

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महफ़िल में थिरकनें को मचलता साज़ काफ़ी है
दिल में गहरी उतरने को तेरी आवाज़ काफ़ी है
नहीं संकोच कर साकी छीन ले जाम मदिरा का
मुझे मदहोश करनें को तेरा अंदाज़ काफ़ी है ।

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2 comments:

Pratyaksha said...

ये तो लिखना ही था,

रुख से झटक के हटाया जो नकाब यारों
जो नशा था वो भी हवा हुआ यारों
सामने मेरे एक नहीं दो चाँद थे यारों
हाथ मेरे नकाब संग उनकी जुल्फ भी थी यारों

Anonymous said...

Anoop ji

bahut badiyaa likhaa hai.

Ripudaman