मैं हर रोज़
बचपन से पले विश्वासों को
क्षण भर में
काँच के गिलास की तरह
टूट कर बिखरते देखता हूँ ।
सुना है जीने के लिये
कुछ मूल्यों और विश्वासों
का होना ज़रूरी है,
इसलिये मैं
एक बार फ़िर से लग जाता हूँ
नये मूल्यों और विश्वासों
को जन्म देनें में
ये जानते हुए भी
कि इन्हें कल फ़िर टूटना है ।
ये सब तब तक तो ठीक है
जब तक मेरा स्वयं
अपनें आप में विश्वास कायम है,
लेकिन डरता हूँ
उस दिन की कल्पना मात्र से
जब टूटते मूल्यों और विश्वासों
की श्रंखला में
एक दिन
मैं अपनें आप में
विश्वास खो बैठूँगा ।
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12/17/2005
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3 comments:
आदर्श-
छोटे हो चुके कपड़ों की मानिन्द
जो,कभी-कभी पहन लिये जाते हैं
दूसरे कपड़े गीले होने पर।
फैशन के दौर में गारंटी की अपेक्षा न रखें।
जब तक ये डर है, विश्वास भी कायम रहेगा. बहुत अच्छा लिखा, आपने.
एक किरण की भी आशा
अँधेरे में देती है
बल !
फुरसतिया जी, क्या करेंगे जब सारे कपडे ही किसी दिन गीले पड जायें
गीले कपड़े पहन के भाग जायेंगे पूरब की ओर । सूख जायेंगे कपड़े हवा में।
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