सुनो,
अब अपनी नज़रें उठाओ
और पाँव के अँगूठे से
जमीन को कुरेदना बन्द करो ,
मैं समझ गया पगली
लेकिन कोई ऐसे भी
अपने दिल की बात
कहता है ?
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सुनो ,
तुम जानती हो
मेरा अस्तित्व
तुम से शुरू हो कर
तुम पर खत्म होता है
फ़िर बता सकोगी
मुझे मेरा विस्तार
अनन्त सा क्यों लगता है ?
1/14/2006
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2 comments:
बहुत सुन्दर अनूप जी।
लक्ष्मीनारायण
बहुत अच्छी कविताएं हैं, बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ.. मजा आ गया :-)
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