रजनी के लिये :
तुम सिर्फ़ एक पँक्ति में कुछ इस तरह समाती हो
स्वयं अगरबत्ती सी सुलगती हो मुझ को मह्काती हो ।
8/31/2006
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न तो साहित्य का बड़ा ज्ञाता हूँ,
न ही कविता की
भाषा को जानता हूँ,
लेकिन फ़िर भी मैं कवि हूँ,
क्यों कि ज़िन्दगी के चन्द
भोगे हुए तथ्यों
और सुखद अनुभूतियों को,
बिना तोड़े मरोड़े,
ज्यों कि त्यों
कह देना भर जानता हूं ।
13 comments:
वाह! क्या बात है
वाह, अनूप जी.
तुम प्रिये आ सामने कुछ इस तरह मेरे खड़ी हो
जिल्द में साकेत के कामायनी जैसे खड़ी हो
मीत मेरे प्राण में तुम इस तरह से हो समाई
घुल गई हो जाम में खैय्याम की जैसे रुबाई
वाह, वाह!
सुलगाना तो नकारात्मक विचार है । अगरबत्ती महकाने के लिये सुलगाना जरूरी थोड़ी है भाईसाहब!
अनूप भाई :
सुलगनें के बारे में सोचते हैं, शायद कुछ बेहतर सूझ जाये !!! महकना तो निश्चित है ।
अनूप जी ,
आपको उत्तर प्रदेश का हिन्दी पुरस्कार प्राप्त होने पर हार्दिक बधाई!
हम कामना करते है ये महक आपके जीवन में
यूँ ही सदा बनी रहे।
अनूप भाई,
बधाई हमारी ओर से भी !
यूँही, जीवन रजनी या दीवा मेँ,
सदा महकता रहे ! ;-)
सादर ~ सस्नेह,
लावण्या
प्रत्यक्षा, समीर, राकेश जी, मनीश, अनूप भाई, रवि, प्रवीन, लावण्या जी:
आप सब की बधाई और शुभकामनाओं के लिये बहुत बहुत आभारी हूँ ..
स्नेह ....
आपकी कुछ कविताएँ रचनाकार पर पुनर्प्रकाशित की हैं.
यह कड़ी देखें-
http://rachanakar.blogspot.com/2006/09/blog-post_21.html
shyad hindi me likh pata to aapne bhawo ko likhta. par subhkamnaye
vijay
सही कहा है किसी ने ...दो पंक्तियाँ ही काफ़ी होती है ....चाहत की गहराई
बतानें के लिए ...
अति सुंदर ....
सादर ,
सुजाता
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