तेरे इश्क के ज़ुनून में हम ने ये अजब काम किया है
पहले तुझे आवाज़ दीं फ़िर खुद ही ज़वाब दिया है ।
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छू लिया आ कर के तूने इस तरह मेरा वज़ूद
साँस भी तेरी मुझे अब अपने जैसी ही लगे है ।
12/02/2006
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न तो साहित्य का बड़ा ज्ञाता हूँ,
न ही कविता की
भाषा को जानता हूँ,
लेकिन फ़िर भी मैं कवि हूँ,
क्यों कि ज़िन्दगी के चन्द
भोगे हुए तथ्यों
और सुखद अनुभूतियों को,
बिना तोड़े मरोड़े,
ज्यों कि त्यों
कह देना भर जानता हूं ।
8 comments:
क्या बात है!! अनूप भाई....
इन दिनों, जब भी मौसम कुछ सर्द होता है
दिल में न जाने क्यूँ फिर, एक दर्द होता है.
बहुत सुन्दर..... और कितना सही....
तेरे ख्यालों को इतना सुना, अपने से वो लगने लगे..
मेरे सपने भी सारे अब ,तेरे रंगों में सजने लगे ।
सुन्दर है--
वजूद मेरा मौजूद कहाँ
यह तो तेरा ही साया है
दिल में तू, सासों में तू
आईने में नज़र तू आया है।
अरे वाह ! हमारे एक सेर पर
तीन तीन सवा सेर ..
ही.. ही ..ही ...
समीर भाई , बेजी , रत्ना जी :
बहुत अच्छा लिखा है आप तीनो नें
बस यूँ ही स्नेह बनाये रखिये ।
बेजी : अच्छा लिखती हो तुम ,
ईकविता ( http://launch.groups.yahoo.com/group/ekavita/ ) की ओर ध्यान दो
बहुत सुंदर और भावपूर्ण शेर हैं . पर अनूप जी 'तूने' और 'अपने' में ये अनुस्वार उर्फ़ बिन्दी कहां से आ गई . इन बिंदियों को जाने को बोलिये .
प्रियंकर जी:
वर्तनी मेरी बचपन से कमजोरी रही है । सुधार के लिये धन्यवाद । ठीक कर दिया है ।
बिन्दियां गुल .... :-)
यह इश्क़ का ज़ुनून कुछ ऐसा सिर पेर चाढ़ता है
अपना वजूद उसके साए में गुम सा लगता है
ranju
इन दिनों, जब भी मौसम कुछ सर्द होता है
दिल में न जाने क्यूँ फिर, एक दर्द होता है.
bahut khub
हुत खूब ...@@@@@@@@@
http://kavyawani.blogspot.com/
shekhar kumawat
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