4/06/2007

मुक्तक

वो लाज को आँखों में छुपाये तो छुपाये कैसे
वो मुझ से दूर भी अगर जाये तो जाये कैसे
वो मेरी रूह की हर रग रग में शामिल है
वो मुझ से बदन को चुराये तो चुराये कैसे ?

5 comments:

अनूप शुक्ल said...

बढ़िया है! बहुत दिन बाद बुनाई-कताई हुयी ख्वाब की! :)

राकेश खंडेलवाल said...

लाज आती तो मेरी बाँह में आते वो नहीं
दूर रहना था अगर पास में आते वो नही<
रूह की प्यास का होता न ख्याल उनको अगर
मेरे होठों पे वो आकर के छलक जाते नहीं

खूबसूरत मुक्तक है आपका

Udan Tashtari said...

सुंदर मुक्तक है, अनूप भाई.

Laxmi said...

ख़ूबसूरत ख़्वाब बुना है, अनूप जी। बधाई।

Anonymous said...

वो अनूप तेरी बातें भुलायें तो भुलायें कैसे
कोई आप से जुबान लड़ाये तो लड़ाये कैसे
क्या क्या गज़ब है ढाया इन चार पंक्तियों ने
तुझ सा ही फन ये खुद में लाये तो लायें कैसे.

लाजवाब होते है तुम्हारी कलम से बुने हुए अल्फाज़
देवी नागरानी