वो लाज को आँखों में छुपाये तो छुपाये कैसे
वो मुझ से दूर भी अगर जाये तो जाये कैसे
वो मेरी रूह की हर रग रग में शामिल है
वो मुझ से बदन को चुराये तो चुराये कैसे ?
4/06/2007
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न तो साहित्य का बड़ा ज्ञाता हूँ,
न ही कविता की
भाषा को जानता हूँ,
लेकिन फ़िर भी मैं कवि हूँ,
क्यों कि ज़िन्दगी के चन्द
भोगे हुए तथ्यों
और सुखद अनुभूतियों को,
बिना तोड़े मरोड़े,
ज्यों कि त्यों
कह देना भर जानता हूं ।
5 comments:
बढ़िया है! बहुत दिन बाद बुनाई-कताई हुयी ख्वाब की! :)
लाज आती तो मेरी बाँह में आते वो नहीं
दूर रहना था अगर पास में आते वो नही<
रूह की प्यास का होता न ख्याल उनको अगर
मेरे होठों पे वो आकर के छलक जाते नहीं
खूबसूरत मुक्तक है आपका
सुंदर मुक्तक है, अनूप भाई.
ख़ूबसूरत ख़्वाब बुना है, अनूप जी। बधाई।
वो अनूप तेरी बातें भुलायें तो भुलायें कैसे
कोई आप से जुबान लड़ाये तो लड़ाये कैसे
क्या क्या गज़ब है ढाया इन चार पंक्तियों ने
तुझ सा ही फन ये खुद में लाये तो लायें कैसे.
लाजवाब होते है तुम्हारी कलम से बुने हुए अल्फाज़
देवी नागरानी
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