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11/21/2005

एक ज्यामितीय कविता

मैं और तुम
एक ही दिशा में
न जाने कब से चलती हुई
दो समान्तर रेखाएं हैं ।

आओ क्यों न इन
रेखाओं पर
प्यार का एक लम्ब डाल दें ?

मैं इसी लम्ब के
घुटनें पकड़ पकड़
शायद तुम तक
पहुँच सकूँ !

अनूप

फ़ुरसतिया जी ! दूसरी पँक्ति पर विशेष ध्यान दें :-)

7/01/2005

समाधान ......

अंको के गणित
और तर्क की
ज्यामिती के दायरे
में कैद ज़िन्दगी
एक कठिन समीकरण
बन गई थी ।

तुम चुपके से आईं
और मेरे कान में
प्यार से
बस इतना ही कहा
'सुनो' .....

मैं मुस्कुरा दिया
और अचानक,
ज़िन्दगी के
सभी कटिन प्रश्न
बड़े आसान
से लगनें लगे ।

---
अनूप

6/21/2005

अस्तित्व


मैनें कई बार
कोशिश की है
तुम से दूर जानें की,
लेकिन मीलों चलनें के बाद
जब मुड़ कर देखता हूँ
तो तुम्हें
उतना ही
करीब पाता हूँ

तुम्हारे इर्द गिर्द
व्रत्त की परिधि
बन कर
रह गया हूँ मैं ।

Asking for a Date

मैं और तुम 
वृत्त की परिधि के 
अलग अलग कोनों में बैठे 
दो बिन्दु हैं, 
मैनें तो 
अपनें हिस्से का 
अर्धव्यास पूरा कर लिया, 
क्या तुम 
मुझसे मिलनें के लिये 
केन्द्र पर आओगी ?