वो मैय्यत पे मेरी आये और झुक के कान में बोले
सचमुच मर गये हो या नया कोई तमाशा है .........
6/26/2005
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न तो साहित्य का बड़ा ज्ञाता हूँ,
न ही कविता की
भाषा को जानता हूँ,
लेकिन फ़िर भी मैं कवि हूँ,
क्यों कि ज़िन्दगी के चन्द
भोगे हुए तथ्यों
और सुखद अनुभूतियों को,
बिना तोड़े मरोड़े,
ज्यों कि त्यों
कह देना भर जानता हूं ।
7 comments:
झकास! क्या बात है,
एकदम लगता है, जन्नत से डायरेक्ट लिखी गयी है
हाँ ! जितेन्द्र भाई , इन्टरनेट यहाँ भी पहुँच गया है । :=)
शेष फ़िर .... (जब आप से मुलाकात होगी )
अनूप
बहुत सही।
वाह वाह !
तुमसा कोइ दुसरा जमीं पर होगा तो रब से शिकायत होगी
एक तो झेला नही जाता, दुसरा आ गया तो क्या हालत होगी
:-)
-आशीष
सीने से निकल के दम गया था ,मुद्दतों हुए
कानों में जो आवाज़ उनकी पडी दम फिर निकल गया
ये तो पोस्ट करना ही था..रहा न गया...
वैसे आशीष जी..आपने भी खूब लिखा..
प्रत्यक्षा
प्रत्यक्षा:
अच्छा लिखा है तुम नें ...
कोई तो बात रही होगी भुलाये रिश्तों में
कम्बख्त दम भी निकल रहा है आज किश्तों में
Height of irony.
Neeraj
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